18 लाख मतदाता किसके सर बांधेगे ताज, ईवीएम में भाग्य कैद
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पतवार के सहारे पार लगना चाह रहे प्रत्यासी
रीवा संसदीय क्षेत्र में 18 लाख मतदाता हैं; अब ये मतदाता सांसद की सीट किसे सौंपते हैं ये तो मतगणना के बाद ही स्पश्ट हो पाएगा, लेकिन राजनैतिक जानकर अपने.अपने गुणा.भाग के अनुसार प्रत्याषियों का भविश्य बनाने बिगाडने में जुटे हुए हैं; रीवा में चुनाव के परिणाम कैसे हांेगे और उसका आधार क्या होगा, इस संबंध में विष्लेशक कमर सिददीकी ने अपनी स्पश्ट राय दी है; हालांकि उन्होंने अपना यह चुनावी विष्लेशण लिखित रूप से दिया है,
कहीं तीसरा न उठा ले जाए दो ब्राहमण प्रत्याषियों की लडाई का फायदा
विन्ध्य के मुख्यालय रीवा में सियासी पारा अपने चरम पर है। दो बार के सांसद के सामने पूर्व विधायक नीलम मिश्रा जीत का दावा ठोंक रही हैं। इस सियासी जंग को समझने के लिए रिमही राजनीत की पृष्ठभूमि को समझना ज़रूरी है।
वैसे तो रीवा का नाम सफेद शेर की जननी के तौर पर जाना जाता है, पर ये तो प्रकृति प्रदत्त है। इसमें यहां के निवासियों का कोई योगदान नहीं। हां, रीवा के निवासियों ने रीवा को राजनीत की प्रयोगशाला अवश्य बना दिया है। 70 के दशक से यहां लगातार राजनीतिक प्रयोग होते चले आ रहे हैं, जो सियासी जानकारों को भी विस्मित कर देते हैं;
समूचे उत्तर भारत की तरह यहां भी आज़ादी के बाद से कांग्रेस का दबदबा रहा है। पर इस भूमि की सियासी समझ को देखते हुए सर्व प्रथम समाजवाद के स्तंभ राम मनोहर लोहिया ने इसे अपनी प्रयोगशाला बनाया। यहां विपक्ष के रूप में मात्र समाजवादी ही सक्रिय रहे। कमुनिस्ट की उपस्थिति प्रतीकात्मक रही, और जनसंघ का कोई नामलेवा नहीं था। कांग्रेस के प्रजातंत्र को पहली चुनौती राजतंत्र से मिली। यहां के पूर्व महाराजा मार्तण्ड सिंह ने पहली बार निर्दलीय के रूप में कांग्रेस को शिकस्त दी। ये वही भूमि है जहां की जनता ने 1977 में एक दृष्टिहीन यमुना प्रसाद शास्त्री को दिल्ली पहुंचाया। इसके बाद एक बार फिर एक उलटफेर देखने को मिला, जब यहां से बीएसपी के टिकट पर एक मामूली शिक्षक भीम सिंह पटेल सांसद चुने गए। ज्ञात हो कि बीएसपी के ये पहले सांसद थे। 90 के दशक से रीवा लोकसभा सीट कांग्रेस, भाजपा, और
बीएसपी के पास रही है।
वर्तमान सांसद जनार्दन मिश्रा दो बार से सांसद हैं। जनार्दन कोई नामी नेता तो नहीं हैं, पर भाजपा की लहर, स्थानीय मंत्री की कृपा और नरेंद्र मोदी के वायदों की नाव पर सवार होकर वो दो बार दिल्ली पहुंचने में कामयाब रहे। हालांकि 10 वर्ष के कार्यकाल की मोदी सरकार की एंटी इनकंबेंसी और इनकी क्षेत्र के प्रति उदासीनता इस चुनाव में जनार्दन पर भारी पड़ सकती है। वहीं बीएसपी ने पटेल उम्मीदवार उतार कर चुनाव को त्रिकोणीय बना दिया है। ज्ञात हो कि रीवा लोकसभा से बीएसपी के अब तक के सभी सांसद पटेल जाति से ही रहे हैं। भीम सिंह पटेल, बुद्धसेन पटेल, और देवराज सिंह पटेल। ये भी एक निर्विवाद सत्य है कि इस क्षेत्र में बीएसपी में पटेल समाज का एकाधिकार रहा है। रीवा के पटेलों के बारे में कहा जाता है कि, इनका सजातीय किसी भी दल से हो, वोट जाति के आधार पर ही डाला जाएगा। बीएसपी वोटरों का एक खास टेंड देखने को मिलता है, वो ये कि यदि चुनाव में उनकी जाति का उम्मीदवार नहीं है तो वो भाजपा को वोट करते हैं। अब देखना ये है कि, उनके वोटों की भरपाई भाजपा कैसे करती है.? बीएसपी के तीनों सांसदों की जीत में क्षत्रिय मतदाताओं का भी अहम योगदान रहा है। आज़ादी के बाद से ही क्षत्रियों व ब्राह्मणांे के बीच सियासी वर्चस्व की प्रतिस्पर्धा चलती आई है, और चुनावों में इसका लाभ पटेल समाज को मिला है। चर्चा ये भी है कि इस बार भाजपा को लेकर वैश्य समाज में भी रोष है, जो कि भाजपा का कट्टर समर्थक माना जाता है।
वर्तमान समीकरण को देखते हुए ऐसा आभास होता है कि, इस चुनाव में ब्राह्मण मतदाता ही निर्णायक साबित होने वाले हैं। ऐसा माना जा रहा है कि जिस प्रत्त्याशी को ब्राहमण समाज के 60 से 65 प्रतिशत मत प्राप्त होंगे, उसकी नैया पार हो जाएगी।
हालांकि जनार्दन की उदासीनता उनकी जीत पर रोड़ा नजऱ आ रही है, तो नीलम के परिवार पर कपड़ों की तरह पार्टी बदलने का टैग चस्पा है। ऐसे में यह कहना भी अनुचित न होगा कि दो ब्राहमण प्रत्याषियों की लडाई में कहीं बीएसपी न हाथ मार ले जाए;
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